2014 से अब तक संस्कृत को मिला ₹2532 करोड़ का फंड, बाकी सभी शास्त्रीय भाषाओं को मिला सिर्फ 6% — RTI से खुलासा

2014 से अब तक संस्कृत को मिला ₹2532 करोड़ का फंड, बाकी सभी शास्त्रीय भाषाओं को मिला सिर्फ 6% — RTI से खुलासा
नई दिल्ली — केंद्र सरकार की भाषा नीति एक बार फिर बहस के केंद्र में है। एक आरटीआई (सूचना का अधिकार) के तहत सामने आए आंकड़ों से यह खुलासा हुआ है कि 2014-15 से 2024-25 के बीच सरकार ने संस्कृत के प्रचार-प्रसार पर ₹2,532.59 करोड़ खर्च किए, जो कि बाकी पांच शास्त्रीय भाषाओं — तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और उड़िया — के कुल ₹147.56 करोड़ खर्च से 17 गुना अधिक है।
यह आँकड़े हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा RTI और सार्वजनिक दस्तावेजों के ज़रिए जुटाए गए हैं। औसतन, प्रति वर्ष संस्कृत पर ₹230.24 करोड़ खर्च हुए, जबकि बाकी पांच भाषाओं पर मात्र ₹13.41 करोड़ सालाना।
भाषा बजट का असंतुलन
भाषा | शास्त्रीय दर्जा प्राप्त वर्ष | कुल फंड (₹ करोड़) | संस्कृत के मुकाबले % |
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संस्कृत | 2005 | 2532.59 | 100% |
तमिल | 2004 | 113.48 | 4.47% |
तेलुगु | 2008 | < 0.5% | |
कन्नड़ | 2008 | < 0.5% | |
मलयालम | 2013 | < 0.2% | |
उड़िया | 2014 | < 0.2% | |
अन्य चार (कुल) | — | 34.08 | 1.35% |
हिंदी, उर्दू, सिंधी को मिला कितना फंड?
संस्कृत को न केवल अन्य शास्त्रीय भाषाओं से अधिक फंड मिला, बल्कि हिंदी, उर्दू और सिंधी जैसी अनुसूचित भाषाओं को मिले कुल ₹1,317.96 करोड़ से भी 52% अधिक खर्च किया गया। इनमें:
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उर्दू: ₹837.94 करोड़
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हिंदी: ₹426.99 करोड़
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सिंधी: ₹53.03 करोड़
यह गौर करने वाली बात है कि संस्कृत की जनसंख्या हिस्सेदारी नगण्य है, जबकि तमिल, तेलुगु, मलयालम, उड़िया और कन्नड़ बोलने वाले 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 21.99% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। वहीं हिंदी मातृभाषा के रूप में 43.63% और उर्दू 4.19% लोगों द्वारा बोली जाती है।
राजनीतिक प्रतिक्रिया: स्टालिन का बयान
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने मार्च में एक सार्वजनिक बयान में संस्कृत और हिंदी के पक्षपातपूर्ण प्रचार की निंदा की थी। उन्होंने कहा था:
“संसद में सेंगोल स्थापित करने के बजाय, केंद्र सरकार तमिलनाडु के कार्यालयों से हिंदी को हटाए। संस्कृत जैसी मृत भाषा की बजाय तमिल को अधिक फंड मिले और उसे हिंदी के बराबर दर्जा मिले।”
नई शास्त्रीय भाषाओं की मान्यता और बजट का सवाल
अक्टूबर 2024 में केंद्र सरकार ने पाँच नई भाषाओं — मराठी, पालि, प्राकृत, असमिया और बंगाली को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया, जिससे कुल संख्या 11 हो गई। लेकिन इन नई भाषाओं के लिए आवंटित बजट की जानकारी अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई है।
केंद्र सरकार की स्थिति: परंपरा बनाम उपयोगिता
केंद्र सरकार का कहना है कि शास्त्रीय भाषाएं भारत की सांस्कृतिक धरोहर की संरक्षक हैं। सरकार के अक्टूबर 2024 के बयान में कहा गया:
“इन भाषाओं को शास्त्रीय दर्जा देकर सरकार भारत की विविध सांस्कृतिक परंपराओं के ऐतिहासिक महत्व को सम्मान देती है।”
शास्त्रीय भाषाओं की पहचान और उनके प्रचार की ज़िम्मेदारी अब संस्कृति मंत्रालय के पास है, जबकि शिक्षा मंत्रालय (MoE) इनके प्रचार हेतु विश्वविद्यालयों, संस्थानों और योजनाओं के माध्यम से कार्य करता है।
संस्कृत को कैसे बढ़ावा दिया जा रहा है?
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तीन केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय: दिल्ली और तिरुपति में स्थापित
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Central Sanskrit Universities Act, 2020 के तहत संचालित
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Central Institute of Indian Languages (CIIL), मैसूरु: तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं के लिए कार्यरत
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BBPS योजना (2025-26): 22 भारतीय भाषाओं में डिजिटल पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराने की योजना
विशेषज्ञ की राय: संस्कृत को विशेष महत्व क्यों?
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफेसर सैयद इम्तियाज़ हसनैन ने कहा:
“संस्कृत का व्यवहारिक उपयोग सीमित है, लेकिन यह धार्मिक और सांस्कृतिक कल्पना में अत्यधिक प्रतिष्ठित है। यह ही कारण हो सकता है कि इसे disproportionate funding मिल रही है।”
भाषा और पहचान की राजनीति
संस्कृत को मिले भारी भरकम बजट ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि भाषा नीति में संस्कृति बनाम समावेशिता, संख्या बनाम विरासत और राजनीति बनाम व्यावहारिकता के बीच किसे प्राथमिकता दी जा रही है। आने वाले समय में जब नई मान्यता प्राप्त शास्त्रीय भाषाओं का बजट सामने आएगा, तब यह बहस और तेज़ हो सकती है — क्या भारतीय भाषाएं समान रूप से सम्मानित हो रही हैं?