Nepal Flames: क्लासरूम से सड़कों तक GenZ की लड़ाई

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Nepal Flames

Nepal Flames: नेपाल में हाल ही में सरकार द्वारा कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाने के कुछ ही दिनों बाद देश में उथल-पुथल मच गई। अगर आप सोचते हैं कि सिर्फ यह प्रतिबंध ही अशांति का कारण है, तो आप आधा सच ही देख रहे हैं। इस आंदोलन की अगुवाई जेन-ज़ी यानी सबसे युवा पीढ़ी ने की, जिनके लिए विरोध प्रदर्शन सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाने का अंतिम और सीधा तरीका बन गया है।

विरोध की शुरुआत और सोशल मीडिया प्रतिबंध

8 सितंबर 2025, सोमवार से यह विरोध शुरू हुआ और जल्द ही पूरे देश में फैल गया। सरकार ने 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, जैसे व्हाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटॉक और यूट्यूब को बंद कर दिया। सरकार का तर्क था कि इन प्लेटफॉर्म्स पर फेक आईडीज़ और गलत गतिविधियाँ बढ़ रही थीं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या आंदोलन केवल इसी वजह से था?

जेन-ज़ी का कहना है कि असली कारण कहीं गहरा है।

असली मुद्दे: भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और बेरोज़गारी

युवाओं का गुस्सा सिर्फ सोशल मीडिया पर प्रतिबंध तक सीमित नहीं है। उनकी असली नाराज़गी देश में बढ़ते भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और आर्थिक बदहाली से है। मीडिया रिपोर्ट्स में खुलासा हुआ कि मंत्रियों के बच्चे विदेशों में ऐशो-आराम की जिंदगी जीते हैं, टिकटॉक और इंस्टाग्राम पर अपने आलीशान जीवन को दिखाते हैं, जबकि देश का युवा खुद को उपेक्षित महसूस करता है।

ग्लोबल इकोनॉमिक रिपोर्ट के अनुसार, नेपाल की युवा बेरोज़गारी दर (15–24 वर्ष) 2024 में 20.82% तक पहुँच गई थी। यानी युवाओं के लिए शिक्षा और करियर का सबसे अहम समय होते हुए भी उनके पास अवसर नहीं हैं।

विरोध की चिंगारी से आग तक

ये मुद्दे वर्षों से सुलग रहे थे, और आखिरकार 8 सितंबर को ज्वालामुखी की तरह फूट पड़े। रात 10 बजे तक नेपाल आर्मी को क़ानून-व्यवस्था की ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ी। लेकिन गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा था।

प्रदर्शनकारियों ने सिंह दरबार स्थित संसद भवन में घुसकर खिड़कियाँ तोड़ीं और कई कक्षों में आग लगा दी। एक 20 वर्षीय छात्रा, मीरा थापा ने कहा: “प्रशासन ने हमारे लिए कभी कुछ नहीं किया। इसे गिराना एक नई शुरुआत होगी।”

सत्ता का पतन

आंदोलन के कुछ ही दिनों में प्रधानमंत्री के. पी. ओली को इस्तीफ़ा देना पड़ा। काठमांडू, पोखरा और इटहरी के कॉलेजों से छात्र सड़कों पर उतर आए। प्रदर्शनकारियों ने पीएम ओली और संचार मंत्री पृथ्वी सुब्बा गुरंग के घरों को आग के हवाले कर दिया।

पूर्व पीएम शेर बहादुर देउबा की पत्नी और विदेश मंत्री अर्जू राणा देउबा की भीड़ ने पिटाई की और बाद में उनके घर को आग लगा दी, जिसमें उनकी मौत हो गई। उप-प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री प्रसाद पौडेल को बुरी तरह पीटा गया और वे मुश्किल से बच पाए। एक और पूर्व प्रधानमंत्री की पत्नी, राज्यलक्ष्मी चित्रकार की निर्मम हत्या कर दी गई।

गृह मंत्री ने भी इस्तीफ़ा दे दिया और कहा: “मैं तब तक पद पर नहीं रह सकता जब तक कि युवा सड़कों पर गलत फैसले की वजह से मर रहे हैं।”

अराजकता और तबाही

देश की व्यवस्था पूरी तरह ढह गई। काठमांडू एयरपोर्ट से अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द कर दी गईं और कर्फ्यू काठमांडू, ललितपुर और भक्तपुर तक बढ़ा दिया गया।

भीड़ ने दुकानों में तोड़फोड़ की, काठमांडू के हिल्टन होटल को आग के हवाले कर दिया और नेताओं की संपत्तियों को निशाना बनाया। सत्ता और विपक्ष दोनों पार्टियों के मुख्यालयों पर हमला हुआ। कांतिपुर मीडिया ग्रुप तक को बख्शा नहीं गया।

महत्तरी ज़िले में प्रदर्शनकारियों ने जेल की दीवार तोड़ दी और कम से कम 500 कैदी भाग निकले।

भारी कीमत

इस लड़ाई की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। कम से कम 20 लोग मारे गए और 300 से अधिक घायल हुए। प्रदर्शनकारी सरकारी गाड़ियों के आगे लेट गए, दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए वीडियो बनाए और मदद की गुहार लगाई, लेकिन हालात संभालने के उपाय नाकाफी साबित हुए।

सवाल अभी भी बाकी

शांति शायद लौट आए, लेकिन उसे कौन कायम रखेगा, यह अनिश्चित है। 2015 में संघीय लोकतंत्र अपनाने के बाद से नेपाल अभी तक एक भी पूर्णकालिक सरकार नहीं देख पाया है। विडंबना यह है कि श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देश वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स में ऊँचे स्थान पर हैं, फिर भी हाल के वर्षों में इन्हें भयंकर विरोध आंदोलनों का सामना करना पड़ा है।

2024 में बांग्लादेश में भी युवाओं ने आरक्षण और भ्रष्टाचार के खिलाफ इसी तरह का आंदोलन किया था, जिसमें पीएम शेख हसीना को इस्तीफ़ा देना पड़ा और भारत में शरण लेनी पड़ी। उस आंदोलन में भी सरकारी भवनों को जलाना, मंत्रियों पर हमला करना और तोड़फोड़ शामिल था। हालाँकि बांग्लादेश में स्थिति फिलहाल शांत है, लेकिन समस्या का हल अभी भी अधूरा है।

और अब, एक साल के भीतर ही नेपाल की जेन-ज़ी ने उसी तरह सड़कों पर उतरकर विद्रोह कर दिया है। सवाल यह है कि क्या यह आंदोलन वास्तव में युवाओं की अपनी आवाज़ है, या फिर पड़ोसी देशों से मिले विरोध के उदाहरणों से प्रेरित है?

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