आपातकाल की 50वीं बरसी: जब लोकतंत्र की सांसें थम गईं, इंदिरा गांधी और 25 जून 1975 की वह काली रात

आपातकाल की 50वीं बरसी: जब इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र को कुचल दिया
नई दिल्ली— आज से ठीक पचास वर्ष पहले, 25 जून 1975 की आधी रात को देश के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला अध्याय लिखा गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी थी, जिसने नागरिक अधिकारों, प्रेस की स्वतंत्रता और राजनीतिक अभिव्यक्ति पर कठोर पहरा बिठा दिया। सवाल अब भी गूंजता है — ऐसी कौन सी परिस्थितियाँ बनी थीं कि देश की एक निर्वाचित प्रधानमंत्री को लोकतंत्र का गला घोंटना पड़ा?
इलाहाबाद हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला और इंदिरा की बौखलाहट
इस घटनाक्रम की भूमिका 12 जून 1975 को तैयार हो चुकी थी, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी के रायबरेली से 1971 में हुए लोकसभा चुनाव को चुनावी कदाचार के चलते रद्द कर दिया। सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राज नारायण की याचिका पर यह फैसला आया था। अदालत ने माना कि इंदिरा गांधी के चुनाव एजेंट यशपाल कपूर, जो उस समय एक सरकारी कर्मचारी थे, ने चुनावी कामों में सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया।
यह फैसला प्रधानमंत्री पद पर बैठे व्यक्ति के लिए एक बड़ा झटका था। लोकतांत्रिक परंपराओं के तहत इस्तीफा देने की बजाय इंदिरा गांधी ने राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए कानूनी दांव-पेच और अंततः आपातकाल का रास्ता चुना।
आंदोलनों की तपती आग और ‘संपूर्ण क्रांति’ का आह्वान
इसी दौरान देश भर में असंतोष की लहर तेज हो चुकी थी। पश्चिम में गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन ने सरकार को चुनौती दी थी, वहीं पूर्व में बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र और युवा ‘संपूर्ण क्रांति’ के लिए सड़कों पर उतर चुके थे। जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली के रामलीला मैदान में 25 जून को एक ऐतिहासिक रैली की अगुवाई की, जिसमें उन्होंने पुलिस और सशस्त्र बलों से “अनुचित आदेशों” को मानने से इनकार करने की अपील की।
आपातकाल की घोषणा और लोकतंत्र का दम घुटना
रातों-रात इंदिरा गांधी ने अपने विश्वासपात्रों, खासकर पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे से सलाह लेने के बाद राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आपातकाल लगाने की सिफारिश की। संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आंतरिक सुरक्षा को खतरा बताकर आपातकाल लागू कर दिया गया।
26 जून की सुबह कैबिनेट की बैठक बुलाई गई, जिसमें बिना पूर्व सूचना के आपातकाल को औपचारिक रूप से मंजूरी दी गई। इसके तुरंत बाद, इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए इस निर्णय को “देश के खिलाफ साजिश” के खिलाफ आवश्यक कदम बताया।
आपातकाल का दमनचक्र: जब स्वतंत्रता पर लगा ताला
आपातकाल के तहत संविधान के तहत प्राप्त नागरिक स्वतंत्रताओं को निलंबित कर दिया गया। प्रेस पर कड़ी सेंसरशिप लागू हुई, राजनीतिक विरोधियों को गिरफ्तार किया गया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगाया गया। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जयप्रकाश नारायण, नानाजी देशमुख, मधु दंडवते, प्रकाश सिंह बादल जैसे सैकड़ों नेता जेल में डाल दिए गए।
इसी दौर में इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी की भूमिका भी अत्यंत विवादास्पद रही। उनके नेतृत्व में नसबंदी जैसे कठोर जनसंख्या नियंत्रण अभियानों को बलपूर्वक लागू किया गया, जिनका सबसे अधिक प्रभाव गरीब तबके पर पड़ा।
‘गूंगी गुड़िया’ से तानाशाह तक का सफर
1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, तो उन्हें ‘गूंगी गुड़िया’ कहा गया था। लेकिन 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध और बांग्लादेश की स्वतंत्रता ने उन्हें अपार लोकप्रियता दिलाई। फिर भी 1973-74 में आर्थिक संकट, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चलते जनता का मोहभंग शुरू हो गया।
इन सबका चरम 12 जून 1975 को अदालत के फैसले के रूप में सामने आया, जिसने इंदिरा गांधी को एक चौराहे पर ला खड़ा किया — या तो लोकतंत्र की राह या तानाशाही की। उन्होंने दूसरी राह चुनी।
अंत की शुरुआत: चुनाव की घोषणा और पराजय
आपातकाल जितना अचानक आया था, उसका अंत भी उतना ही अप्रत्याशित था। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनाव कराने और राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की घोषणा की। मार्च 1977 में हुए चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आई।
आज जब हम आपातकाल की 50वीं बरसी पर खड़े हैं, यह याद करना जरूरी है कि लोकतंत्र केवल एक व्यवस्था नहीं, बल्कि निरंतर सजग रहने की जिम्मेदारी है। 25 जून 1975 की रात देश को यही सबक देकर गई — कि जब सत्ता निरंकुश हो जाती है, तब सबसे बड़ी जिम्मेदारी जनता की चेतना और जागरूकता की होती है।